Ramdhari singh dinkar poems list

रामधारी सिंह दिनकर की कविताएं: आज हम आपके लिए अपने इस लेख के माध्यम से मशहूर लेखक,कवि,पत्रकार,निबंधकार और स्वतंत्रता सेनानी रामधारी सिंह दिनकर जी की कुछ चुनिंदा दिलचस्प कविताएं लेकर आए हैं। यदि आप भी कविताओं में रुचि रखते हैं तो हमारे इस आर्टिकल को अंत तक अवश्य पढ़ें। रामधारी सिंह दिनकर जी का जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार में हुआ था। मशहूर लेखक ने अपने समय में कुछ प्रमुख रचनाएं जैसे रश्मिरथी, उर्वशी, कुरुक्षेत्र, संस्कृति के चार अध्याय,परशुराम की प्रतीक्षा,हुंकार, हाहाकार, चक्रव्यूह,आत्मजयी आदि बहुत प्रसिद्ध है। इस महान लेखक को कई सारे पुरस्कारो से सम्मानित भी किया गया है जैसे साहित्य अकादमी पुरस्कार और पद्म विभूषण आदि। रामधारी जी को वीर का सबसे प्रमुख कवि माना जाता है। आज़ादी की लड़ाई में भी रामधारी जी ने महत्वपूर्ण योगदान दिया था। Check more Hindi Poems here

1- कलम आज उनकी जय बोल (लेखक – रामधारी सिंह दिनकर)

चिटकाई जिनमें चिंगारी,

जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर

लिए बिना गर्दन का मोल

कलम, आज उनकी जय बोल।

जो अगणित लघु दीप हमारे

तूफानों में एक किनारे,

जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन

माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल

कलम, आज उनकी जय बोल।

पीकर जिनकी लाल शिखाएँ

उगल रही सौ लपट दिशाएं,

जिनके सिंहनाद से सहमी

धरती रही अभी तक डोल

कलम, आज उनकी जय बोल।

अंधा चकाचौंध का मारा

क्या जाने इतिहास बेचारा,

साखी हैं उनकी महिमा के

सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल

कलम, आज उनकी जय बोल।

व्याख्या

कविता के माध्यम से लेखक रामधारी सिंह दिनकर जी द्वारा कहा जा रहा है कि जिन वीरों ने देश के मान सम्मान के लिए अपना बलिदान दिया है, हैं कलम आज उनकी जय बोल। कवि कह रहा है कि केवल इतिहास के पन्नों में ही नहीं बल्कि हमें उनके बलिदान को अपने जीवन में कभी नहीं भूलना चाहिए क्योंकि आज हमारा समाज में जो अस्तित्व है वह उन्हीं वीरों की देन है। वरना हम आज भी अंग्रेजों के गुलाम होते हैं। उन वीर योद्धाओं के मन में देश के प्रति जो चिंगारी सुलगी थी और अपनी जान की परवाह किए बिना देश के लिए शहीद हो गए लेकिन भारत को एक नया जीवन दे गए।

2- क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल (लेखक – रामधारी सिंह दिनकर)

क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल

सबका लिया सहारा

पर नर व्याघ्र दूरयोधन तुमसे

कहो, कहाँ, कब हारा ?

क्षमाशील हो रिपु-समक्ष

तुम हुये विनत जितना ही

दुष्ट कौरवों ने तुमको

कायर समझा उतना ही।

अत्याचार सहन करने का

कुफल यही होता है

पौरुष का आतंक मनुज

कोमल होकर खोता है।

क्षमा शोभती उस भुजंग को

जिसके पास गरल हो

उसको क्या जो दंतहीन

विषरहित, विनीत, सरल हो।

तीन दिवस तक पंथ मांगते

रघुपति सिन्धु किनारे,

बैठे पढ़ते रहे छन्द

अनुनय के प्यारे-प्यारे।

उत्तर में जब एक नाद भी

उठा नहीं सागर से

उठी अधीर धधक पौरुष की

आग राम के शर से।

सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि

करता आ गिरा शरण में

चरण पूज दासता ग्रहण की

बँधा मूढ़ बन्धन में।

सच पूछो, तो शर में ही

बसती है दीप्ति विनय की

सन्धि-वचन संपूज्य उसी का

जिसमें शक्ति विजय की।

सहनशीलता, क्षमा, दया को

तभी पूजता जग है

बल का दर्प चमकता उसके

पीछे जब जगमग है।

व्याख्या

इस कविता के माध्यम से लेखक रामधारी सिंह दिनकर जी द्वारा बताया जा रहा है कि क्षमा, दया, तप, मनोबल और त्याग इन सभी का इतना ही सहारा क्यों ना ले ले लेकिन कब कहां कैसे आपकी हार हो जाए आपको नहीं पता। कवि कहते हैं कि आप किसी से इतनी ही विनती क्यों ना कर ले वह आपको कायर भी समझेगा और आपको हार मानने पर मजबूर भी करेगा। कभी द्वारा कहा जा रहा है कि कभी भी खुद को दूसरों पर निर्भर ना करके खुद से आगे बढ़ने का प्रयास करना ही सफलता की निशानी है। कवि द्वारा कहा जा रहा है कि कोमल हृदय और दया की भावना केवल उसी के नहीं रखनी चाहिए जो आपकी भावनाओं की अहमियत को समझता हो। कई बार हमारा सहानुभूति व्यवहार ही हमारी हार और हमारा शत्रु बन जाता है।

3- रामधारी सिंह दिनकर की कविताएं: परंपरा

परंपरा को अंधी लाठी से मत पीटो।

उसमें बहुत कुछ है,

जो जीवित है,

जीवनदायक है,

जैसे भी हो,

ध्वसं से बचा रखने लायक़ है।

पानी का छिछला होकर

समतल में दौड़ना,

यह क्रांति का नाम है।

लेकिन घाट बाँधकर

पानी को गहरा बनाना

यह परंपरा का नाम है।

पंरपरा और क्रांति में

संघर्ष चलने दो।

आग लगी है, तो

सूखी डालो को जलने दो।

मगर जो डालें

आज भी हरी है,

उन पर तो तरस खाओ।

मेरी एक बात तुम मान लो।

लोगों की आस्था के आधार

टूट जाते हैं,

उखड़े हुए पेड़ो के समान

वे अपनी ज़डो से छूट जाते हैं।

परंपरा जब लुप्त होती है

सभ्यता अकेलेपन के

दर्द में मरती है।

कलमें लगना जानते हो,

तो जरुर लगाओ,

मगर ऐसी कि फलों में

अपनी मिट्टी का स्वाद रहे।

और ये बात याद रहे

परंपरा चीनी नहीं मधु है।

वह न तो हिन्दू है, ना मुस्लिम।

व्याख्या

इस कविता के माध्यम से लेखक द्वारा कहा जा रहा है कि अपने कुल की परंपरा निभाना अच्छी बात है लेकिन कभी-कभी वह परंपरा आपके पैरों की बेड़ी बन जाए और आपको आगे बढ़ने से रोके तो ऐसी परंपरा को तोड़ देना ही बेहतर है। कवि कह रहा है कि कई बाहर बड़ा निभाने के कारण लोगों की आस्था टूट जाती है उसी प्रकार जैसे एक उखड़े हुए पेड़ से डाली टूट कर गिर जाती है। कवि द्वारा कहा जा रहा है कि परंपरा केवल उसी प्रकार निभानी चाहिए जिस तरह से फलों में अपनी मिट्टी का स्वाद रहे। हर धर्म के लोगों में अपनी कुछ परंपराए होती है जो सदियों से चली आती हैं अगर आपको उन परंपराओं को निभाने से तकलीफ होती है तो आपको ऐसे परंपराओं को तोड़ देना चाहिए।

4- रामधारी सिंह दिनकर की कविताएं: वीर

सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं

स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं

सच है, विपत्ति जब आती है,

कायर को ही दहलाती है,

सूरमा नहीं विचलित होते,

क्षण एक नहीं धीरज खोते,

विघ्नों को गले लगाते हैं,

कांटों में राह बनाते हैं।

मुहँ से न कभी उफ़ कहते हैं,

संकट का चरण न गहते हैं,

जो आ पड़ता सब सहते हैं,

उद्योग – निरत नित रहते हैं,

शूलों का मूळ नसाते हैं,

बढ़ खुद विपत्ति पर छाते हैं।

है कौन विघ्न ऐसा जग में,

टिक सके आदमी के मग में?

ख़म ठोंक ठेलता है जब नर

पर्वत के जाते पाँव उखड़,

मानव जब ज़ोर लगाता है,

पत्थर पानी बन जाता है।

गुन बड़े एक से एक प्रखर,

हैं छिपे मानवों के भीतर,

मेंहदी में जैसी लाली हो,

वर्तिका – बीच उजियाली हो,

बत्ती जो नहीं जलाता है,

रोशनी नहीं वह पाता है।

व्याख्या

इस कविता के माध्यम से लेखक रामधारी सिंह दिनकर जी द्वारा वीरों की वीरता और साहस का वर्णन किया जा रहा है। कहां जा रहा है कि एक वीर योद्धा किसी भी कठिन से कठिन परिस्थिति का सामना निडरता के साथ सीना तान कर करता है। कठिन विपत्ति केवल कायर कहीं दिल दहला देती है क्यूंकि वीर योद्धा पल भर के लिए भी अपना धीरज नहीं खोते हैं। कवि द्वारा कहा जा रहा है कि निडर और बलशाली सूरमा कांटों में भी अपनी राह बना लेते हैं और जीत का झंडा गाढ़ कर आते हैं। वीर योद्धा तो अंधेरों में भी रोशनी कर लेते हैं और पत्थर को भी पानी बना देते हैं लेकिन कायर मनुष्य तो विपत्ति आने पर उल्टे पांव भाग खड़े होते हैं।

5- सुंदरता और काल

बाग में खिला था कहीं अल्हड़ गुलाब एक,

गरम लहू था, अभी यौवन के दिन थे;

ताना मार हँसा एक माली के बुढ़ापे पर,

“लटक रहे हैं कब्र-बीच पाँव इसके।”

चैत की हवा में खूब खिलता गया गुलाब,

बाकी रहा कहीं भी कसाव नहीं तन में।

माली को निहार बोला फिर यों गरूर में कि

“अब तो तुम्हारा वक्त और भी करीब है।”

मगर, हुआ जो भोर, वायु लगते ही टूट

बिखर गईं समस्त पत्तियाँ गुलाब की।

दिन चढ़ने के बाद माली की नज़र पड़ी,

एक ओर फेंका उन्हें उसने बुहार के।

मैंने एक कविता बना दी तथ्य बात सोच,

सुषमा गुलाब है, कराल काल माली है।

व्याख्या

इस कविता के माध्यम से लेखक रामधारी सिंह दिनकर जी द्वारा सुंदरता और काल के गुणों का बखान किया जा रहा है। कवि द्वारा कहा जा रहा है कि कोई व्यक्ति कितना भी सुंदर क्यों ना हो पर कभी भी घमंड और गुरूर नहीं करना चाहिए क्योंकि एक ना एक दिन सुंदरता ढलती अवश्य है। सुंदर बनना है तो मन से सुंदर बनिए जिसे लोग आपके ना होने पर भी आपको खुशी दिल से याद करें। कई बार घमंड और गुरूर के कारण आपकी सुंदरता आपके काल कारण बन सकती हैं। कवि द्वारा बहुत ही खूबसूरत उदाहरण देते हुए इस कविता की पंक्ति में सुंदरता और काल एक दूसरे से किस प्रकार अलग है उस को दर्शाया गया है।

6- रामधारी सिंह दिनकर की कविताएं: चांद का कुर्ता

हठ कर बैठा चाँद एक दिन, माता से यह बोला,

‘‘सिलवा दो माँ मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला।

सनसन चलती हवा रात भर, जाड़े से मरता हूँ,

ठिठुर-ठिठुरकर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ।

आसमान का सफर और यह मौसम है जाड़े का,

न हो अगर तो ला दो कुर्ता ही कोई भाड़े का।’’

बच्चे की सुन बात कहा माता ने, ‘‘अरे सलोने!

कुशल करें भगवान, लगें मत तुझको जादू-टोने।

जाड़े की तो बात ठीक है, पर मैं तो डरती हूँ,

एक नाप में कभी नहीं तुझको देखा करती हूँ।

कभी एक अंगुल भर चौड़ा, कभी एक फुट मोटा,

बड़ा किसी दिन हो जाता है, और किसी दिन छोटा।

घटता-बढ़ता रोज किसी दिन ऐसा भी करता है,

नहीं किसी की भी आँखों को दिखलाई पड़ता है।

अब तू ही ये बता, नाप तेरा किस रोज़ लिवाएँ,

सी दें एक झिंगोला जो हर रोज बदन में आए?’’

व्याख्या

इस कविता के माध्यम से लेखक द्वारा बताया जा रहा है कि किस तरह से चांद आकाश में चमकते हुए अपनी मां से कुर्ता लाने का हट कर रहा है। चंद्रमा अपनी मां से हट करते हुए कहता है कि मां इस ठिठुरती हुई ठंड में मुझे एक कुर्ता सिलवा दे यदि अगर तुम्हारे पास कुर्ता सिलवाने के पैसे नहीं है तो भाड़े पर ही ला दो। इस सर्दी में आकाश का पूरा चक्कर लगाना बहुत मुश्किल होता है। उस पर मां कहती है कि जाड़े की बात तो ठीक है लेकिन तू कभी एक नाप में नहीं रहता, कभी एक उंगली छोटा तो कभी एक उंगली मोटा होता रहता है। अब तू ही बता किस तरह से किस तरह से मैं तेरा कुर्ता सिलवाओ जो हर रोज बदन में आ जाए।

7- रामधारी सिंह दिनकर की कविताएं: आशा का दीपक

वह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल दूर नहीं है;

थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नहीं है।

चिन्गारी बन गयी लहू की बून्द गिरी जो पग से;

चमक रहे पीछे मुड़ देखो चरण-चिह्न जगमग से।

बाकी होश तभी तक, जब तक जलता तूर नहीं है;

थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नहीं है।

अपनी हड्डी की मशाल से हृदय चीरते तम का;

सारी रात चले तुम दुख झेलते कुलिश का।

एक खेय है शेष, किसी विध पार उसे कर जाओ;

वह देखो, उस पार चमकता है मन्दिर प्रियतम का।

आकर इतना पास फिरे, वह सच्चा शूर नहीं है;

थककर बैठ गये क्या भाई!

मंज़िल दूर नहीं है।

दिशा दीप्त हो उठी प्राप्त कर पुण्य-प्रकाश तुम्हारा;

लिखा जा चुका अनल-अक्षरों में इतिहास तुम्हारा।

जिस मिट्टी ने लहू पिया, वह फूल खिलाएगी ही;

अम्बर पर घन बन छाएगा ही उच्छ्वास तुम्हारा।

और अधिक ले जाँच, देवता इतना क्रूर नहीं है;

थककर बैठ गये क्या भाई!

मंज़िल दूर नहीं है

व्याख्या

इस कविता के माध्यम से लेखक रामधारी सिंह दिनकर जी द्वारा आशा के दीप कभी भी मन में भुजने देना नहीं चाहिए, इसकी व्याख्या की जा रही है। कवि द्वारा कहा जा रहा है कि जब तक आशा का दीप मन में जगा हुआ है, तब तक मनुष्य कभी थक कर नहीं बैठता लेकिन एक बार मन में आशा की किरण हल्की सी भी कम हुई तो मनुष्य की पास आती मंजिल फिर से दूर पहुंच जाती हैं। कवि द्वारा कहा जा रहा है कि अपनी जिंदगी पाने के लिए बिना थके, बिना डरे अगर कांटों भरे रास्तों को भी अगर पार करना पड़े तो कर जाना चाहिए। कवि द्वारा कहा जा रहा है कि भगवान इतने निर्देय नही कि आपके कठिन परिश्रम के बाद उसका फल ना दें।

8- गांधीजी

देश में जिधर भी जाता हूँ,

उधर ही का नाम सुना जाता हूं।

जड़ता को तोड़ने के लिए भूकम्प लू।

घुप्प अँधेरे में फिर अपनी मशाल जलाओ।

पूरे पहाड़ हवेली पर जुड़े पवनकुमार के समान तरोजो।

कोई तूफान उठाने को कवि, गरजो, गरजो, गरजो!

सोचता हूँ, मैं कब गरजा था

जिसे लोग मेरी गरजन समझ रहे हैं,

असल में वह गाँधी का था,

उस महात्मा का था, जिसने हमें जन्म दिया था।

तब भी मैंने महात्मा गांधी

को नहीं देखा।

वे तूफ़ान और गर्जन के पीछे बसते थे।

सच तो यह है कि अपनी लीला में

तूफ़ान और गर्जन को शामिल होते देख

वे हंसते थे।

तूफान मोटी नहीं, महीन ध्वनि से उत्पन्न होती है।

वह आवाज़ जो माँ के गहरे के समान है,

एकान्त में जलती है और बज नहीं,

कबूतर के चाल से चलती है।

गाँधी के पिता और बाजों के भी बाज थे,

क्योंकि वे नीरवता की आवाज़ थे।

व्याख्या

इस कविता के माध्यम से लेखक रामधारी सिंह दिनकर जी द्वारा गांधी जी की महानता के बारे में बताया जा रहा है। कवि द्वारा कहा जा रहा है कि देश को आजादी दिलाने के बाद

केवल इतिहास के पन्नों में ही नहीं बल्कि जहां जाओ वहां गांधी जी का नाम अवश्य ही सुनने को मिलेगा। गांधीजी ही ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने अपनी आवाज उठा कर कई सारे वीर योद्धाओं के साथ मिलकर देश की आजादी की लड़ाई लड़ी थी। उनकी आवाज को जब तूफान और गर्जन साथ मिलता था तो उनके मन में देश की को आजाद कराने की चिंगारी और भी भड़क उठी थी। गांधी की महानता की कहानियां हम बचपन से ही सुनते आए हैं और हमारे मन में भी कहीं ना कहीं उन्हीं की तरह सच्चाई और साहस के रास्ते पर चलने की प्रेरणा मिलती है।

9- रामधारी सिंह दिनकर की कविताएं: निराशावादी

पहाड़ पर, शायद, वृक्षारोपण न कोई शेष बची हुई

धरती पर, शायद, शेष बची घास नहीं

उड़ी है, भाप बनकर सरियों का पानी,

शेष न तारे चांद के आस-पास।

क्या कहा कि मैं घनघोर निराशावादी हूँ?

तब तुम सीमित टटोलो हृदय देश का, और कहो,

लोगों के दिल में कहीं अश्रु क्या शेष है?

बोलो, बोलो, विस्मय में यों मत मौन रहो।

व्याख्या

माध्यम से लेखक रामधारी सिंह दिनकर जी द्वारा कहा जा रहा है कि हमें कभी भी किसी भी परिस्थिति में निराशा को अपने अंदर जन्म नहीं देना चाहिए जिस तरह से पहाड़ पर वृक्षारोपण होने के बाद धरती पर घास नहीं बचते उसी तरह घनघोर निराशा मन में होने पर आंसू शेष नहीं बचते।

10- हमारे कृषक

जेठ हो कि हो पूस, हमारे कृषकों को आराम नहीं है

छूटे कभी संग बैलों का ऐसा कोई याम नहीं है

मुख में जीभ शक्ति भुजा में जीवन में सुख का नाम नहीं है

वसन कहाँ?

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सूखी रोटी भी मिलती दोनों शाम नहीं है

बैलों के ये बंधू वर्ष भर क्या जाने कैसे जीते हैं

बंधी जीभ, आँखें विषम गम खा शायद आँसू पीते हैं

पर शिशु का क्या, सीख न पाया अभी जो आँसू पीना

चूस-चूस सूखा स्तन माँ का, सो जाता रो-विलप नगीना

विवश देखती माँ आँचल से नन्ही तड़प उड़ जाती

अपना रक्त पिला देती यदि फटती आज वज्र की छाती

कब्र-कब्र में अबोध बालकों की भूखी हड्डी रोती है

दूध-दूध की कदम-कदम पर सारी रात होती है

दूध-दूध औ वत्स मंदिरों में बहरे पाषान यहाँ है

दूध-दूध तारे बोलो इन बच्चों के भगवान कहाँ हैं

दूध-दूध गंगा तू ही अपनी पानी को दूध बना दे

दूध-दूध उफ कोई है तो इन भूखे मुर्दों को जरा मना दे

दूध-दूध दुनिया सोती है लाऊँ दूध कहाँ किस घर से

दूध-दूध हे देव गगन के कुछ बूँदें टपका अम्बर से

टो व्योम के, मेघ पंथ से स्वर्ग लूटने हम आते हैं

दूध-दूध हे वत्स!

तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं

व्याख्या

इस कविता के माध्यम से लेखक रामधारी सिंह दिनकर जी द्वारा कहा जा रहा है कि किस तरह से हमारे किसान तपती धूप और कड़ाके की सर्दी में हम तक भोजन का साधन पहुंचाने के लिए दिन रात मेहनत करते हैं और खुद भूखे पेट और कर्ज में डूब कर अपनी जिंदगी गुजारते हैं। किसानों के जीवन में सुख का नामोनिशान देखने को और सुनने को नहीं मिलता। कई बार हम देखते हैं और सुनते हैं कि बारिश के कारण या फिर ज्यादा कोहरा पढ़ने पर फसलें बर्बाद हो जाती हैं

किसान जहां से अपना परिश्रम शुरू करता है, फल मिलने के समय पर भी वहीं आ खड़ा होता है जहां से उसने शुरुआत की थी। इस कठिन परिस्थिति में उनका साथ देने वाला कोई नहीं होता और उनके बच्चे दूध तक के लिए तरसते हैं। फसलों के नुकसान पर भी कोई उसकी भरपाई नहीं करता और मंडी तक अनाज आने पर 4 गुनी कीमत पर बिकता है और उन तक केवल 10% भी बहुत मुश्किल से पहुंचता है। कवि द्वारा कहा जा रहा है कि दुनिया में सबसे ज्यादा कठिन परिश्रम करने वाला मनुष्य केवल हमारे कृषक ही हैं जो पूरे साल मेहनत करते हैं और दो वक्त के खाने के लिए भी तरसते हैं।

11- कलम या कि तलवार 

दो में से क्या तुम्हे चाहिए कलम या कि तलवार 

मन में ऊँचे भाव कि तन में शक्ति विजय अपार।

अंध कक्ष में बैठ रचोगे ऊँचे मीठे गान

या तलवार पकड़ जीतोगे बाहर का मैदान।

कलम देश की बड़ी शक्ति है भाव जगाने वाली, 

दिल की नहीं दिमागों में भी आग लगाने वाली। 

पैदा करती कलम विचारों के जलते अंगारे, 

और प्रज्वलित प्राण देश क्या कभी मरेगा मारे। 

एक भेद है और वहां निर्भय होते नर -नारी, 

कलम उगलती आग, जहाँ अक्षर बनते चिंगारी। 

जहाँ मनुष्यों के भीतर हरदम जलते हैं शोले, 

बादल में बिजली होती, होते दिमाग में गोले। 

जहाँ पालते लोग लहू में हालाहल की धार, 

क्या चिंता यदि वहाँ हाथ में नहीं हुई तलवार।

व्याख्या

इस कविता के माध्यम से लेखक द्वारा कहा जा रहा है कि कलम और तलवार में से तुमको क्या चाहिए फैसला करना बहुत आसान है लेकिन कुछ लोग ऐसे हैं जो की अहिंसा को बढ़ावा देने के कारण तलवार हाथ में ले लेते हैं लेकिन तलवार से केवल आप दंगे फसाद लड़ाई झगड़ा और देश के हालात ही बिगाड़ सकते हैं लेकिन यदि आपके पास कलम है तो आप अपने कलाम की ताकत से बहुत कुछ कर जाने की शक्ति रखते हैं।

ऐसी चीज है जो लोगों के दिलों में नहीं बल्कि दिमाग में भी एक आशा की किरण जगह देती है। आज का बच्चा कल देश का भविष्य बनेगा लेकिन ऐसा तब होगा जब आपके हाथ में कलम होगी। इस कविता से हमें यह सीख मिलती है की दोस्तों की यदि हमें भी अपने देश का गौरव मान सम्मान बढ़ाना है तो हमें तलवार नहीं हाथ में कलम उठाना चाहिए और देश को आसमान की ऊंचाई पर पहुंचना चाहिए क्योंकि देश केवल किसी एक का नहीं सबका है इसलिए सबके साथ सबका विकास करें।

12- प्राण भंग 

विश्व विभव की अमर वेली पर 

फूलों सा खिला तेरा।

शक्तियां पर चढ़कर पर वह 

उन्नति रवि से मिलना तेरा। 

भारत क्रूर समय की मारो 

से ना जगत सकता है भूल। 

अभी उसे सौरभ से सुरभित 

कालिंदी के कलकुल।

व्याख्या

इस कविता के माध्यम से लेखक द्वारा बताया जा रहा है कि जब कोई इंसान अपने जीवन की सफलता की और कदम बढ़ाता है तो उसका फूलों से मिला चेहरा मानो ऐसा प्रतीत होता है जैसे वह सूर्य से मिलने जा रहा है। हर कोई अपने जीवन में सूरज की तरह प्रकाश फैलाना चाहता है जहां आप अपनी रोशनी से दुनिया का अंधकार और अपने जीवन का अंधकार मिटा सके। दोस्तों इस कविता से हमें यह सीख मिलती है कि यदि आप खुद के लिए और अपने आसपास रहने वाले लोगों के लिए सच में एक रोशनी की किरण बनना चाहते हैं तो सबसे पहले अपना मन साफ रखें।

13- जियो जियो अय हिन्दुस्तान

जाग रहे हम वीर जवान,
जियो जियो अय हिन्दुस्तान।                         

हम प्रभात की नई किरण हैं हम दिन के आलोक नवल,
हम नवीन भारत के सैनिक,धीर, वीर,गंभीर, अचल।
हम प्रहरी उँचे हिमाद्रि के, सुरभि स्वर्ग की लेते हैं,
हम हैं शान्तिदूत धरणी के, छाँह सभी को देते हैं।
वीर-प्रसू माँ की आँखों के हम नवीन उजियाले हैं
गंगा, यमुना, हिन्द महासागर के हम रखवाले हैं।                                                   

तन मन धन तुम पर कुर्बान,
जियो जियो अय हिन्दुस्तान।                         

हम सपूत उनके जो नर थे अनल और मधु मिश्रण
जिसमें नर का तेज प्रखर था,भीतर था नारी का मन।
एक नयन संजीवन जिनका,एक नयन था हालाहल
जितना कठिन खड्ग था कर में उतना ही अंतर कोमल।
थर-थर तीनों लोक काँपते थे जिनकी ललकारों पर
स्वर्ग नाचता था रण में जिनकी पवित्र तलवारों पर।                                                  

हम उन वीरों की सन्तान,
जियो जियो अय हिन्दुस्तान।                         

हम शकारि विक्रमादित्य हैं अरिदल को दलनेवाले
रण में ज़मीं नहीं, दुश्मन की लाशों पर चलनेंवाले।
हम अर्जुन,हम भीम, शान्ति के लिये जगत में जीते हैं
मगर, शत्रु हठ करे अगर तो, लहू वक्ष का पीते हैं।
हम हैं शिवा-प्रताप रोटियाँ भले घास की खाएंगे
मगर, किसी ज़ुल्मी के आगे मस्तक नहीं झुकायेंगे।                                           

देंगे जान नहीं ईमान,
जियो जियो अय हिन्दुस्तान।                     

जियो, जियो अय देश कि पहरे पर ही जगे हुए हैं हम
वन, पर्वत, हर तरफ़ चौकसी में ही लगे हुए हैं हम।
हिन्द-सिन्धु की कसम, कौन इस पर जहाज ला सकता
सरहद के भीतर कोई दुश्मन कैसे आ सकता है?

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पर की हम कुछ नहीं चाहते, अपनी किन्तु बचायेंगे
जिसकी उँगली उठी उसे हम यमपुर को पहुँचायेंगे।                                          

हम प्रहरी यमराज समान
जियो जियो अय हिन्दुस्तान।

व्याख्या

इस कविता के माध्यम से लेखक द्वारा बताया जा रहा है कि हम वीर जवान ऐसे ही जागते रहे और हमारा हिंदुस्तान ऐसे ही जीत रहे। हर सुबह हमारे और हमारे देश के लिए एक नई उम्मीद की किरण लेकर आए और देश का निवासी और भी ज्यादा तरक्की करें। आज हम देश के मान सम्मान में गर्व से जो नारे लगाते हैं वह केवल हमारे देश के महान आत्माओं की देन है जिन्होंने देश को केवल आजाद ही नहीं कराया बल्कि देश को उसे मुकाम तक ले गए जहां शायद हम कल्पना भी नहीं कर सकते थे।

अंग्रेजों की गुलामी, छुआछूत जैसी अंधकार और अमीरी गरीबी के भेदभाव से बचाया। केवल इतना ही नहीं और भी बहुत सारे बलिदान हमारे देश की महान नौजवान आज भी करते हैं हम सुकून से सो पाए इसलिए हमारे देश के सिपाही सरहदों पर तपती दुपहरी में कड़ाके की ठंडी में और तो और घनघोर बारिश और बाढ़ के हालातो में भी हमारे देश की रक्षा करते हैं कि कहीं कोई घुसपैठ या आकर हमारे देश को नुकसान न पहुंचा दे।

इस देश और देश के सिपाही के सम्मान में हम जितना भी बोले वह शब्द बहुत कम होंगे। इस कविता से हमें केवल यही सीख मिलती है कि हमें भी अपने देश के मान सम्मान और नाक ऊंची रखने के लिए हमेशा तत्पर रहना चाहिए और देश की रक्षा केवल सिपाहियों का ही कर्तव्य नहीं बल्कि हमारा भी परम धर्म में यदि कहीं पर देश या देश के लोगों के प्रति कही गलत हो रहा है तो उसके खिलाफ भी आवाज उठाना हमारा फर्ज है।

14- पर्वतारोही 

मैं पर्वतरोहि हूं

शिखर अभी दूर है।

और मेरी सांस फूलने लगी है।

मुड़कर देखता हूं 

कि मैंने जो निशान बनाय थे 

वह है या नहीं। 

मैंने जो बीज गिराय थे 

उनका क्या हुआ?

किसान बीजों को मिट्टी से गाडकर 

घर जाकर सुख से सोता है, 

इस आशा में के वह उगेंगे 

और पौधे लहराएंगे।

उनमें जब दाने भरेंगे 

पक्षी उत्सव मनाने को आएंगे। 

लेकिन कवि की किस्मत 

इतनी अच्छी नहीं होती।

वह अपने भविष्य को 

आप नहीं पहचानता।

हृदय के दाने तो उसने

बिखेर दिए हैं।

मगर फसल उगेगी या नहीं

यह रहस्य वह नहीं जानता।

व्याख्या

इस कविता के माध्यम से लेखक द्वारा कहा जा रहा है कि एक कवि की जिंदगी आसान नहीं होती क्योंकि उसको मुसाफिर की तरह शिखर पर चढ़ाना होता है, लेकिन बीच रास्ते में ही उसकी सांस फूलने लगती है, और कदम लड़खड़ाने लगते हैं। जिस प्रकार एक किसान अपने खेतों में बीज बोता है, पानी डालकर सींचता है और इंतजार करता है कि जब फसल लहराएगी तो पक्षी भी उत्सव मनाएंगे।

लेकिन एक कवि अपने शब्दों को कविता के रूप में पिरोता है लेकिन उसे रहस्य को कोई नहीं जानता कि उसकी द्वारा की गई खेती पर क्या फसल उगेगी या नहीं?

क्या उसको वह रिजल्ट मिलेगा कि नहीं जो वह चाहता है? सीख मिलती है कि इस कविता से हमें यह सीख मिलती है कि किसी भी क्षेत्र में जीवन का संघर्ष आसान नहीं होता सफलता पाने के लिए कठिनाइयों से भी गुजरना पड़ता है और कांटों भरे रास्ते पर भी चलना पड़ता है।

हेलो दोस्तों तो हम उम्मीद करते हैं आपको रामधारी सिंह दिनकर की कविताएं बेहद पसंद आई होंगी। आगे भी हम आपके लिए इसी तरह आपकी मनपसंद और दिलचस्प कविताएं लिखते रहेंगे और आप इसी तरह पढ़ते रहें और अपना प्यार बनाए रखें। Stay tuned for broaden Hindi Poems!